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90 का दशक…..
मध्यप्रदेश-राजस्थान बॉर्डर पर एक गांव में हमारे नाना-नानी का घर। गर्मियों की छुट्टी के दो-ढाई महीने वहीं हमारा पड़ाव होता था।
मेरे पर-नानाजी मिलाकर कुल 4 भाई थे, उनके फिर लगभग 4–4 बेटे। फिर मेरे मामाजी की जनरेशन के लड़के। सौभाग्यवश सबके घर अभी भी वहीं के वहीं, एक दूसरे से चिपके हुए।
चुपके-चुपके फ़िल्म के राजपाल यादव ने शायद ये डायलॉग हमारी फैमिली और घरों को देखकर ही बनाया होगा - "तुम लोग इसे जिला घोषित क्यों नहीं कर देते?"
गर्मी की छुट्टियों में थोक (होलसेल) में सब कजिंस वहां इकठ्ठे हो जाते।
मई-जून की तपती धूप और बाहर चलती लू के कारण, हम बच्चों को दोपहर के समय घर में ज़बरदस्ती कैद करके रखा जाता था।
हम इंतज़ार करते थे कब घड़ी में 4–4.30 बजे, थोड़ी धूप कम हो और हम बाहर भागें।
ऐसे ही एक बार हम दोपहर की जेल से आज़ाद होकर निठल्ले ही मोहल्ले में घूम रहे थे। वैसे ही जैसे जंगल में गर्दन उठाये जिराफ़ घूमते हैं।
मैं और मेरा पक्का कज़िन (जैसे पक्के दोस्त होते हैं वैसे ही वो कज़िन में सबसे अच्छा दोस्त था, तो पक्का कज़िन हुआ)।
चलिए उसे डिम्पल सिंह नाम दिए देते हैं, क्योंकि हंसते वक़्त उसके दोनों गालों में बड़े ही सुंदर डिम्पल पड़ते हैं। इन डिंपल्स के कारण वो अपने को शाहरुख खान से कम ना समझता था।
बहरहाल डिम्पल सिंह बड़े ही एडवेंचरस मिज़ाज़ का था। छुल्लक-प्रमाद में सबसे आगे, इसी तरह के उसके दोस्त।
इस शरारत की शुरुआत तब हुई जब घूमते हुए हम साथ वाली गली में उसके दोस्त के घर के सामने से निकले।
देखा वो एक लोहे के ड्रम में (वो बड़ा ड्रम जिसमे पहले लोग गेहूं स्टोर करते थे) पानी भर के नहा रहा था।
आपने चिड़ियाघर में हिप्पो को पानी मे अटखेलियां करते देखा होगा, बस वैसी ही कुछ हरकतें वो पानी से भरे ड्रम में कर रहा था।
डिम्पल सिंह और मैंने एक दूसरे को देखा और आंखों ही आंखों में ऐसा ही कुछ करने का तय किया।
एक मामा के घर की तल मंजिल पर बाहर के कमरे में एक अंडरग्राउंड पानी की टँकी थी। जिसे हौद भी कहा जाता है।
सामान्यतः वह बन्द ही रहता था।
हमने सबसे पहले उस कमरे की चाबी जुगाड़ी। फिर जब कोई देख नहीं रहा था तो हम अंदर गए और अंदर से बाहर की सांकल लगा ली।
अब बाहर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता था जैसे बाहर से ही दरवाज़ा बन्द है अंदर कोई नहीं है।
हम कपड़े पहने हुए ही उसका ढक्कन खोलकर हौद में कूद गए। किसी मिनी स्विमिंग पूल से कम नहीं लग रहा था वहां।
छप-छपाक की आवाज़ें करते हुए हम पानी उछाल रहे थे।
हमारे मज़े की तुलना आप उन भैसों के आनंद से कर सकते हैं जो गर्मियों में तालाबों में पड़ी रहती हैं।
जीवन का असली आनंद आ गया। दुर्भाग्यवश कोई वहां से निकला और उसने छपाको की आवाज़ सुन ली।
उन्होंने सब लोगों को भी इकठ्टा कर लिया। उन्हें ये आशंका हुई कि कोई चोर या फिर कोई कुत्ता अंदर घुस गया है।
हमे पता ही नहीं था बाहर क्या मजमा जमा हो गया है।
सावधानी पूर्वक उन्होंने जैसे ही दरवाज़ा खोला सबने अपना सिर पिट लिया।
सब बूढ़े लोग हमें उस ज़माने में प्रचलित गालियां देने लगे।
एक तो गर्मी का मौसम, पानी की किल्लत ऊपर से पूरी हौद हमने खराब कर दी।
भीगने से भारी हो चुके कपड़ों में भी बिजली की गति से हम बाहर निकले और सुपरसोनिक स्पीड से क्राइम सीन से कट लिए।
आगे भी बहुत कुछ हुआ, जिसे लेकर सारे कजिंस ने पूरी की गर्मी की छुट्टी में हमे चिढ़ाया। अब भी पारिवारिक समारोह में इकठ्टा होने पर ये सुपरहिट एडवेंचर याद किया जाता है।