देवव्रत से कर्ण तक के पाठों का सारांश 200 शब्दों में लिखों​

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देवव्रत, जिन्हें बाद में भीष्म के नाम से जाना गया, ने कर्ण को उनके साथ बातचीत के दौरान कई मूल्यवान शिक्षाएँ दीं। उन्होंने निष्ठा और धार्मिकता के महत्व पर जोर दिया, इस बात पर प्रकाश डाला कि किसी के कार्यों को व्यक्तिगत लाभ के बजाय सिद्धांतों द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिए। देवव्रत ने बड़ों और शिक्षकों के प्रति विनम्रता और सम्मान के महत्व पर भी जोर दिया, कर्ण को हमेशा अधिक अनुभवी लोगों से ज्ञान और मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने कर्ण को अहंकार के परिणामों और ज्ञान के बजाय अहंकार के आधार पर निर्णय लेने के खतरों के बारे में चेतावनी दी। देवव्रत की शिक्षाओं ने ईमानदारी, निस्वार्थता और व्यक्ति के जीवन में सत्य की खोज के सार को रेखांकित किया। उनके मार्गदर्शन के माध्यम से, कर्ण ने नैतिक मूल्यों, आत्म-जागरूकता और किसी के भाग्य पर विकल्पों के प्रभाव के महत्व को सीखा, जिससे नैतिकता और सद्गुण के बारे में उनकी समझ बनी।

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"देवव्रत से कर्ण" तक के पाठ में बाल महाभारत के कई महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन है। प्रमुख किस्से में देवव्रत जो बाद में भीष्म पितामह के रूप में जाने जाते हैं, के प्रेम और वचन का उल्लेख है। उन्होंने अपनी माता सत्यवती के लिए अपने राजा पिता के वचन का पालन करते हुए अपनी सुखद जीवन की आज्ञा ग्रहण की थी।

Explanation:

नदी के किनारे गंगा एक सुंदर युवती के रूप में खड़ी थीं तभी राजा शांतनु वहाँ से गुजरे और वे गंगा पर मोहित हो गए। उन्होंने युवती के सामने विवाह करने का प्रस्ताव रखा। गंगा राजा शांतनु से विवाह करने को तैयार हो गयीं परन्तु उन्होंने राजा शांतनु के सामने शर्तें रखीं जिसे शांतनु ने स्वीकार कर लिया।

समय के साथ गंगा के कई तेजस्वी पुत्र हुए परन्तु गंगा ने उन्हें जीने नहीं दिया। गंगा पुत्र के जन्म लेते ही उसे नदी के बहती धारा में फेंक देती थी। चूँकि राजा शांतनु वचन दे चुके थे इसलिए वे कुछ नहीं कर पाते थे। जब आठवें बच्चे ने जन्म लिया तब राजा शांतनु से रहा नहीं गया, और उन्होंने गंगा को रोक दिया। इसपर गंगा ने राजा को उनके वचन की याद दिलाई और शर्तों के  गंगा अब राजा के घर नहीं रुक सकतीं थीं। साथ ही गंगा ने यह कहा कि वो उनके आठवें पुत्र को नदी में नहीं फेकेंगी, वह पुत्र को कुछ  पालेंगीं और फिर राजा शांतनु को सौंप देंगी।

गंगा के चले जाने के बाद राजा शांतनु राज-काज में मन लगाने लगे।

एक दिन राजा शिकार खेलते हुए गंगा के तट पर चले गए। वहाँ उन्होंने एक सुंदर और गठीले युवक को नदी की बहती हुई धारा पर बाण चलाते देखा बाणों की बौछार से बहती धारा रुकी हुई थी जिसे देख राजा भी हतप्रभ रह गए। तभी वहाँ गंगा उनके सामने आयीं और बताया कि यही राजा और उनका आठवाँ पुत्र देवव्रत है जिसे महर्षि वसिष्ठ ने शिक्षा दी है। राजा शांतनु देवव्रत को लेकर वहाँ से चल दिए। देवव्रत ही बाद में भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्द हुए।