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उत्तराखण्ड के सीमान्त जनपद रूद्रप्रयाग के उत्तरी भाग में हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य भारत के द्वादस ज्योतिर्लिंग में श्री केदार एकादश ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात है तथा हिमालय में स्थित होने से सभी ज्योतिर्लिंगों में सर्वोपरि है। केदारनाथ मन्दिर उत्तरी भारत में पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है, जो समुद्र तल से 3584 मीटर की ऊंचाई पर मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित है। इस क्षेत्र का ऐतिहासिक नाम "केदार खंड" है। केदारनाथ मन्दिर उत्तराखंड में चार धाम और पंच केदार का एक हिस्सा है और भारत में भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है।

कालान्तर द्वापर-युग में महाभारत युद्ध के उपरान्त गोत्र हत्या के पाप से पाण्डव अत्यन्त दुःखी हुये और केदार क्षेत्र में भगवान शिव के दर्शनार्थ आये । भगवान शिव गोत्र-घाती पाण्डवों को प्रत्यक्ष दर्शन नहीं देना चाहते थे अतएव वे मायामय महिष का रूप धारण कर केदार में विचरण करने लगे । पाण्डवो को बुद्धियोग से ज्ञात हो चला कि शंकर भगवान हैं तो पाण्डव महिष का पीछा मायावी महिष के रूप में यही रहने लगे । यह जानकर महिष रूपी शिव भूमिगत होने लगे तो पाण्डवों ने भगवान शिव की दौड़कर महिष रूप का पृष्ठ भाग पकड़ लिया और विनम्र प्रार्थना अराधना करने लगे । पाण्डवों की प्रार्थना को सुनकर भगवन शिव बहुत प्रसन्न हुए और महिष के पृष्ठ भाग के रूप में भगवान शंकर श्री केदारनाथ में भूमिगत हो गये। भगवान का श्रीमुख नेपाल में पशुपतिनाथ के रूप में प्रकट हुए । पांडवों द्वारा श्री केदारनाथ में भगवान शिव की विधिवत पूजा अर्चना की गयी जिसके बाद वे गोत्र हत्या के पाप से मुक्त हुये और पाण्डवों ने ही भगवान श्री केदारनाथ जी के विशाल एवं भव्य मन्दिर का निर्माण किया। तब से भगवान शिव श्री केदारनाथ में निरन्तर वास करते हैं ।

श्री बदरीनाथ जी की यात्रा से पूर्व भगवान श्री केदारनाथ जी के पुण्य दर्शनों का महात्म्य है । सत्ययुग में इसी स्थान पर केदार नाम के एक राजा ने घोर तपस्या की थी, इस कारण से भी इस क्षेत्र को केदार क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। केदार का शाब्दिक अर्थ दलदल होता है तथा भगवान शिव दल-दल भूमि के अधिपति भी हैं इसलिए भी दल- दल (केदार) के (नाथ) पति से केदारनाथ नाम पड़ा । महाभारत में इस भूमि में मन्दाकिनी, अलकनन्दा एवं सरस्वती बहने का उल्लेख भी मिलता है जो आज तक इस क्षेत्र में बह रही है । केदारनाथ में अनेक मुक्ति प्रदान करने वाले तीर्थ स्थान हैं । केदारनाथ मंदिर के चारों तरफ बहने वाली दुग्ध गंगा, मन्दाकिनी आदि देव नदियों के जल में स्नान करने से आयु बढती है । केदारनाथ के पश्चिम उत्तर दिशा में लगभग 8 किमी0 की दूरी पर वासुकी ताल है । यहां पर ब्रह्मकमल बहुत मात्रा में होते हैं इसके साथ ही इस क्षेत्र में गुग्गुल, जटामांशी अतीस, ममीरा, हत्थाजड़ी आदि जड़ी बूटियां प्राकृतिक रूप से उगती हैं ।

मंदिर की पूर्व दिशा में जहां पर एक गुफा है कहा जाता है कि पाण्डवों ने अन्तिम यज्ञ इसी स्थान पर किया था । श्री केदारनाथ जी के कपाट बैसाख मास में अक्षय तृतीय के पश्चात खुलते हैं तथा भैयादूज के दिन बन्द हो जाते हैं । शेष छः माह के लिए भगवान शिव की पूजा ऊखीमठ में होती है । ऊखीमठ में भगवान ओंकारेश्वर जी का विशाल एवं भव्य मन्दिर है यहां पर श्री पंचकेदारों में भगवान श्री मद्महेश्वर जी की शीतकालीन छः माह की पूजा भी यहीं पर होती है। केदारखण्ड तथा स्कन्दपुराण में केदार यात्रा का महत्व इस तरह वर्णित किया गया है कि श्री बदरीनाथ जी की यात्रा से पहले श्री केदारनाथ जी की यात्रा करनी चाहिये। जो भगवान श्री केदारनाथ का नाम स्मरण एवं शुभ संकल्प मन में लेता है वह मनुष्य अति पुण्यात्मा एवं धन्य हो जाता है और अपने पितरों की अनेक पीढियों का उद्धार कर भगवान की कृपा से साक्षात् शिवलोक का प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार पंचबदरी तीर्थों का अपना इतिहास एवं महात्म्य है उसी प्रकार पंच केदार तीर्थों का भी अपना विशेष महत्त्व है । इन स्थानों की प्राचीन काल से बहुत विशेषतायें रही हैं जिसका वर्णन स्वयं भगवान शिव पार्वती जी से करते हैं । वर्तमान में भी इन तीर्थ स्थानों की यात्रा एवं भगवान के पुण्य दर्शन करने मात्र से सारी मनोकामनायें पूर्ण हो जाती हैं ।

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