Answer :

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कंडक्टर साहब ने अपना सहयोग दिया और टायर बदला फिर बस चल पड़ी। लेखक को जरा सा भी विष्वास नहीं था कि वे अपनी मंजिल पर पहुँच पाँऐंगे उन्होंने उम्मीद ही छोड़ दी थी। पाठ – लगता था, जिंदगी इसी बस में गुजारनी है अैर इससे सीधे उस लोक को प्रयाण कर जाना है। इस पृथ्वी पर उसकी कोई मंजिल नहीं है।

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Answer:यह प्रश्न "बस की यात्रा" नामक एक कहानी से लिया गया प्रतीत होता है, जो आमतौर पर पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाई जाती है। इस कहानी में, बस की यात्रा के दौरान विभिन्न यात्रियों के जीवन और उनके गंतव्य पर चर्चा होती है।

इस कहानी में एक विशेष पात्र, वसन्ती, की बात होती है, जो एक गरीब लड़की थी और बस की यात्रा कर रही थी। उसकी कोई निश्चित मंजिल नहीं थी क्योंकि वह बस यात्रा का आनंद ले रही थी और उसका कोई ठिकाना नहीं था। इसलिए, इस कहानी के अनुसार, वसन्ती ही वह पात्र है जिसकी पृथ्वी पर कोई निश्चित मंजिल नहीं थी।

इस कहानी में हर यात्री का एक गंतव्य था, लेकिन वसन्ती का कोई गंतव्य नहीं था। वह बस यात्रा को ही अपनी मंजिल मानती थी।

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